क्या अफगानिस्तान को तालिबान से छुड़ा पाएंगे अमरुल्ला सालेह? जानिए जमीनी हकीकत
Afghanistan Crisis: अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद पूरी दुनिया में फैले अफगान नागरिक भय और दहशत में हैं. हालांकि काबुल पर कब्जे के साथ ही तालिबान ने अमन कायम करने की बात की थी लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान का जो चेहरा सामने आ रहा है वो वाकई पूरी इंसानियत के लिए खतरनाक है. अशरफ गनी जैसे बड़े नेताओं के देश छोड़कर भाग जाने से आम अफगानी नागरिकों में घोर निराशा है. ऐसे में अफगानी नागरिकों का हौसला बढ़ाने वाली एक मात्र आवाज बनकर तालिबानियों को चुनौती दे रहे पूर्व उपराष्ट्रपति अमरुल्ला सालेह की ओर दुनिया की निगाहें लगी हुई हैं.
कौन हैं अमरुल्ला सालेह?
हाल में अफगानिस्तान की अपदस्थ अशरफ गनी सरकार में उपराष्ट्रपति रहे अमरुल्ला सालेह ने खुद को अफगानिस्तान का कार्यकारी राष्ट्रपति घोषित कर तालिबान के खिलाफ जंग जारी रहने का ऐलान कर दिया है. ताजिक समुदाय से आने वाले 49 साल के सालेह ने छोटी अवस्था में ही तालिबान के खिलाफ लड़ना शुरू कर दिया था. किसी जमाने में तालिबान के सबसे बड़े दुश्मन अहमद शाह मसूद को सालेह अपना गुरु और आदर्श मानते हैं.
सालेह ने पहले नॉर्दन एलायंस और फिर अमेरिकी खुफिया एजेंसी के साथ मिलकर तालिबान के खिलाफ एक जासूस के रूप में काम किया. बाद में तालिबान के सफाए के बाद सालेह हामिद करजई की सरकार के दौरान खुफिया विभाग के महत्वपूर्ण पदों पर रहे लेकिन करजई की तालिबान से बातचीत की बात आने पर सालेह ने करजई की आलोचना की. अशरफ गनी की सरकार में सालेह गृह मंत्री भी रहे.
पूर्व राजदूत विवेक काटजू से अमरुल्ला सालेह के पुराने रिश्ते
इलाहाबाद में पले-बढ़े और दिल्ली में रह रहे विवेक काटजू को 1995 से लेकर 2001 तक भारत की ईरान, पाकिस्तान और अफगानिस्तान डिविजन का इंचार्ज संयुक्त सचिव के रूप में बनाया गया. उस समय तालिबान आगे बढ़ रहा था. 1996 में तालिबान ने काबुल को अपनी गिरफ्त में ले लिया. उस समय तालिबान के खिलाफ नॉर्दन एलायंस के नेताओं में अहमद शाह मसूद भी थे.
उनका ठिकाना पंजशेर घाटी में था. काटजू की उनसे भी मुलाक़ातें हुईं. उसके बाद अमरीका और नेटो की फौजों ने जब 2001 में अमरीकी हमले के बाद तालिबान को अफगानिस्तान से बाहर निकला और नॉर्दन एलायंस की फौज ने भी उनका साथ दिया. तब 2002 में विवेक काटजू की नियुक्ति अफगानिस्तान में भारत के राजदूत के रूप में हुई. मार्च 2002 से जनवरी 2005 तक काटजू काबुल में रहे. यहीं उनकी मुलाकात अमरुल्ला सालेह से हुई और फिर कई मुलाकातें हुईं.
अफगानिस्तान में अमरीका का दखल
विवेक काटजू कहते हैं कि आज की परिस्थिति को टाला नहीं जा सकता था. इसके कई कारण थे. शुरू में अफगानिस्तान में अमरीकी फौजों का लक्ष्य सीमित था, वो अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों खास कर अल कायदा को अफगानिस्तान से निकालना चाहते थे. पहले उन्होंने तालिबान से मांग की कि अल कायदा के नेताओं को हमारे हवाले कर दो क्योंकि वो 9/11 हमले के दोषी हैं लेकिन तालिबान नेतृत्व ने ऐसा नहीं किया. इसीलिए अमेरिका ने वहां हमला किया लेकिन पहले तो अमरीका सफल हुआ. तालिबान की शिकस्त हुई और अल कायदा के नेताओं ने भागकर पाकिस्तान की शरण ली. ये और साफ हो गया कि वो पाकिस्तान की शरण में थे क्योंकि ओसामा बिन लादेन 2011 में एबटाबाद में मारा गया.
तालिबान पाकिस्तान में पलता रहा
आगे चल कर अफगानिस्तान में अमरीकी लक्ष्य थोड़ा सा बदल गया. जैसा कि अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन कहते हैं कि अमरीका वहां राष्ट्र निर्माण के काम में लग गया. विवेक काटजू कहते हैं कि हालांकि राष्ट्र निर्माण का काम कभी विदेशी लोग नहीं कर सकते. वो तो वहां के नेतृत्व और वहां की जनता को ही करना पड़ता है. अमेरिका इसमें सफल नहीं हुआ. चूंकि तालिबान का पूरी तरह सफाया नहीं हुआ था तो ये साफ था कि अगर तालिबान को पाकिस्तान में इसी तरह शरण मिलती रही तो तालिबान एक दिन डूरेंट रेखा को पार कर अफगानिस्तान में फिर से अपना प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश करेगा. तालिबान पाकिस्तान में चला गया और अमरीका ने वहां उन्हें खत्म करने की कोशिश नहीं की तो अल कायदा और तालिबान जिंदा रहे.
रूस ने भी मुजाहिद्दीन को पाकिस्तान में पलने दिया
रूस की भी अफगानिस्तान में हार हुई थी. तब अमरीका पाकिस्तान के मुजाहिद्दीन की सहायता कर रहा था. 1980 के दशक में रूस ने पाकिस्तान में मुजाहिद्दीन के ठिकानों का सफाया नहीं किया तो वो पनपते रहे. वहीं अफगानिस्तान के नेताओं ने खासकर 2001 के बाद हामिद करजई और अशरफ गनी ने ये कोशिश नहीं की कि तालिबान की विचारधारा को जमीनी स्तर पर चुनौती दी जाए. खासतौर पर पशतून इलाके में कॉन्फिडेंस बिल्डिंग नहीं की.
अवैध अफीम
अफगानिस्तान में बहुत बड़ी मात्रा में अफीम की अवैध खेती होती है. अफीम की अवैध खेती ने सिस्टम को खोखला कर दिया. इसने दीमक की तरह अफगानिस्तान के राजनीतिक और सामाजिक ढांचे को खोखला कर दिया. इन सब कारणों से अफगानिस्तान की जनता का सरकार से भरोसा टूट गया. इन सबका नतीजा ये हुआ कि जब तालिबान इस बार आए तो अफगानिस्तान की फौज ने मुकाबला ही नहीं किया.
क्या अमरुल्ला सालेह कामयाब होंगे?
इस प्रश्न के जवाब में विवेक काटजू चिंता के साथ कहते हैं कि मैं अमरुल्लाह सालेह को 24 साल से व्यक्तिगत रूप से जानता हूं तब वो छोटे थे. अब उन्होंने बहुत कामयाबी हासिल की है. बहुत साहसी हैं. बहुत काबिल हैं लेकिन परिस्थितियां 1990 से अलग है. अहमद मसूद के बेटे उनके साथ है लेकिन मसूद के भाई ने उनके बयान को वर्तमान परिस्थितियों में बेईमानी बताया है. सालेह ने झंडा तो उठाया है लेकिन वो कितना कामयाब होंगे ये कहना मुश्किल है.
सालेह की तालिबान को चुनौती
काटजू कहते हैं कि सालेह अपने आत्मविश्वास से ये कर रहे हैं. सालेह पंजशेर में हैं और तालिबान की सेनाएं भी पंजशेर पहुंचने की कोशिश कर रही है. मैं पंजशेर घाटी गया हूं. काफी दुर्गम इलाका है. गुरिल्ला वार के लिए ये मुफीद जगह है. यहीं अहमद शाह मसूद ने सोवियत सेनाओं से मुकाबला किया था. मसूद एक बहुत काबिल गोरिल्ला सेना के लीडर थे. सालेह के सामने प्रैक्टिकल दिक्कत बहुत आएगी.
अफगानिस्तान में सबसे बड़ा ग्रुप पश्तून का है, जिन्हें पठान कहते हैं. इनका दबदबा हमेशा रहा है. राष्ट्रपति हामिद करजई और राष्ट्रपति अशरफ गनी भी पश्तून थे. पश्तून के बाद दूसरी बड़ी जाति हजारा है, फिर ताजिक और फिर उज्बेक है. इन बड़े एथनिक ग्रुप के अलावा बलोच, किर्गीज और 10 अन्य जातियां भी हैं. अफगानिस्तान में जातीय संरचना काफी जटिल है. ऐसा नहीं है कि पश्तून वर्चस्व के खिलाफ बाकी जातियां एकजुट रही हों. अलग-अलग जातियां पश्तून के साथ मिलकर काम करती रहीं हैं और अलगाव भी होता रहा है.
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