डिजिटल डेस्क, वाशिंगटन। अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ अमेरिका ने 20 सालों तक अफगान सेना के साथ मिलकर तालिबान के खिलाफ लंबी जंग लड़ी। लेकिन, इस जंग से कुछ हासिल नहीं हुआ। जब तक अमेरिका सेना अफगानिस्तान में थी, तब तक तालिबान मजबूत नहीं था। अब जब अमेरिकी सेना की घर वापसी हो रही है तो तालिबान अपने पैर पसारने लगा है। उसने ईरान से सटे इलाकों पर अपना कब्जा जमाना शुरू कर दिया है। खुद अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने इस बात को स्वीकार किया है कि इस जंग से कुछ हासिल नहीं हुआ।
जॉर्ज बुश, बराक ओबामा, डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल से चली आ रही इस जंग ने बाइडेन के कार्यकाल में दूसरा मोड़ ले लिया है। अब अमेरिका शांति समझौते की बात कह रहा है। बाइडेन ने कहा है कि यह एक ऐसा युद्ध है जिसे जीता नहीं जा सकता और इसका कोई सैन्य समाधान नहीं है। उन्होंने इस बात को भी स्वीकार किया है कि तालिबान पर भरोसा करना ठीक नहीं है। उन्होंने कहा कि अमेरिका के जाने के बाद अफगान सरकार को पूरे देश को नियंत्रित करने में सक्षम होने की कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने तालिबान और अफगान सरकार से शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने का आह्वान किया। बाइडेन ने कहा, हम वहां अफगानिस्तान का निर्माण करने के लिए नहीं गए थे। अफगान नेताओं को एक साथ आना चाहिए और भविष्य का निर्माण करना चाहिए।
We are repositioning our resources to meet terror threats where they are now: across South Asia, the Middle East, and Africa.
But make no mistake: we have the capabilities to protect the homeland from any resurgent terrorist challenge emanating from Afghanistan.
— President Biden (@POTUS) July 8, 2021
अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी को लेकर गुरुवार को राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि अमेरिकी सेना का सैन्य अभियान 31 अगस्त को खत्म हो जाएगा। 20 सालों से जारी जंग आखिरकार समाप्त होने वाली है। बाइडेन ने 14 अप्रैल 2021 को ऐलान किया था कि 11 सितंबर 2021 को 9/11 हमले की 20 वीं बरसी तक अफगानिस्तान से अमेरिका और नाटो सेनाएं वापस हो चुकी होंगी। इससे पहले, अमेरिकी सैनिकों के अफगानिस्तान छोड़कर जाने की डेडलाइन तारीख 11 सितंबर थी। लेकिन, बाइडेन ने सैनिकों को डेडलाइन से पहले ही अफगानिस्तान छोड़ने का आदेश दिया है। उन्होंने कहा कि अब अफगानिस्तान में एक भी सैनिक नहीं मारा जाना चाहिए।
अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की वापसी की खबर सामने आने के बाद तालिबान फिर से एक्टिव हो गया है। तालिबान अफगानी लोगों के बीच ये संदेश देना चाहता है कि हम 20 सालों से चल रही ये जंग जीत चुके हैं। अमेरिकी सेना को हमने यहां से जाने के लिए मजबूर कर दिया है। अब तालिबान द्वारा देश में महत्वपूर्ण ठिकानों पर प्रगति करने के बीच बाइडेन ने अमेरिकी सैन्य अभियान को खत्म करने के अपने निर्णय को उचित ठहराया। गौरतलब है कि तालिबान अफगानिस्तान में अतांक मचा रहा है और अमेरिका सैनिकों की वापसी का ऐलान होने के बाद से अब तक करीब 100 इलाकों पर कब्जा जमा चुका है। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि 1,500 अफगान सैनिक भागकर पड़ोसी देश चले गए हैं। वहीं, अफगानी सेना की मदद करने के बजाय अमेरिका तेजी से देश छोड़ रहा है।
अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी की खबरों के बीच आतंक फैलाने वाला तालिबान एक बार फिर हावी होता नजर आ रहा है।पाकिस्तान पहले से ही डरा हुआ है कि सैनिकों से खाली होते ही अफगानिस्तान में अशांति आ जाएगी।और यही हो भी रहा है।तालिबान ने पूरे देश में अपनी गतिविधियां बढ़ा दी हैं।यहां तक कि वो अमेरिकी सेना को भी धमकी दे चुका है कि समय सीमा पूरी होने तक सभी वहां से लौट जाएं.तालिबान ने बीते कुछ ही दिनों में अफगानिस्तान के 10 जिलों पर कब्जा कर लिया।इनमें से अधिकतर में कब्जे के दौरान कोई हिंसक संघर्ष नहीं हुआ क्योंकि खुद अफगान सैनिक आतंकियों से डरकर पड़ोसी देश भाग निकले।अब तालिबान के दोबारा उभरने का डर गहरा चुका है, जिससे पड़ोसी देश पाकिस्तान समेत भारत को भी खतरा है।
अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिक तब से रहते हुए लगातार आतंकियों का सफाया करते रहे।यहां तक कि वे अफगानी सेना को ट्रेनिंग देने लगे ताकि वो आतंक का मुकाबला खुद ही कर सकें। इसी बीच कुछ सालों में अमेरिकी जनता समेत नेता भी अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने की मांग करने लगे।इसकी सबसे बड़ी वजह तो सैनिकों के अपने परिवारों से दूरी के कारण आई अस्थिरता थी।जनता का मानना है कि अमेरिकी सैनिक बेवजह ही दशकों से युद्ध के हालात में रखे गए हैं।साथ ही इस असंतोष की एक और वजह ये भी है कि विदेशी जमीन पर सैनिकों की तैनाती का ज्यादातर खर्च अमेरिकी लोगों से टैक्स के तौर पर वसूला जाता है।पैसों के अलावा सैनिकों को कई मानवीय समस्याओं से भी जूझना पड़ता है।जैसे चरमपंथी समूह कभी भी उन पर हमला कर देते हैं।
धार्मिक तौर पर बेहद कट्टर संगठन तालिबान की शुरुआत 90 के दशक से मानी जाती है। तब वहां पर पश्तो आंदोलन उभरा, जो पश्तून इलाके में शरीयत की स्थापना की बात करने लगे। पहले वे धार्मिक मदरसों की तरह काम करते। उनकी लोकप्रियता भी बढ़ी। लेकिन, बाद में वे अपनी बात न मानने वालों पर हिंसा करने लगे और इलाकों पर जबरन कब्जा करने लगे। हालात ये बने कि अगले 5 ही सालों में तालिबान संगठन ने काबुल पर कब्जा कर लिया। वे धार्मिक कट्टरपंथी थे, जो महिलाओं को बुरके में रहने और घर से अकेले बाहर निकलने पर पाबंदी की बात करते। पुरुषों के लिए दाढ़ी रखना अनिवार्य था। साथ ही कोई भी पश्चिमी शिक्षा नहीं पा सकता था। ब्यूटी पार्लर और विदेशी गाने सुनने पर पाबंदी लग गई। 10 साल और उससे अधिक उम्र की लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक थी।
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